शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

कहानी- आजी by Dilip Lokre

कहानी -

आजी

फोन की आवाज से मै जब नींद से चौंक कर जागा तो सबसे पहले नज़र घड़ी पर पड़ी। रात का डेढ़ बज
रहा था। समझ गया कि जिस फोन कॉल की आशंका पिछले कई दिनो से थी वो आख़िर आ चुका था।
पत्नी रश्मि ने कोहनी मार कर मुझे जल्दी फोन उठाने का इशारा किया । उसे सुबह जल्दी उठ कर स्कूल
जाना होता है और रात को नींद बिगड़ने पर उसका चिढ़ना स्वाभाविक है। मैने उठ कर फोन का रिसीवर
उठाया। दूसरी तरफ़ से एक रुआंसी सी आवाज़ आई
"माँ नहीं रही.....सर"
"हूं.....’ मैने कहा "मै सुबह आता हूं..." और फोन रख दिया।
वापस बिस्तर पर लौट कर मैने सोने की कोशिश की लेकिन नींद उड़ चुकी थी।पिछली कई घटनाएं,
दिमाग मे टीवी सीरियल के एपिसोड  की तरह एक के बाद एक गुज़रने लगी।
उस दिन नीचे के कमरे से आती तेज़ आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा था और मै समझ गया की आज फिर
कुछ गड़बड़ है। पिछले कई दि नो से घर मे यह एक आम बात हो गई थी। दस व्याक्तियों के परिवार मे
सुबह का वक़्त सभी के लिए व्यस्तता वाला होता है। बाथरूम को शेअर करने से लेकरकिचन मे काम
को लेकर आएदिन किच-किच होती रह्ती थी। माँ की पूजा,पिताजी का योगा,बड़े भैया की न्यूज़ ,बच्चों
का स्कूल और घर की बहुओं द्वारा टिफिन और खाना बनाने का समय अमूमन हर घर मे एक समस्या है
और ख़ास कर संयुक्त परिवार वाले घर मे। हमारे घर मे इस समस्या ने तब से सर उठाया जब से माँ को
बेकपेन की शिकायत हुई।
माँ जब तक घर को सम्हालती है घर की लाज ढंकी रहती है। उसका घर के कामों से रिटायरमेंट हमेशा
कई समस्याओं को जन्म देता है।पिछले चार दिनों से घर पर काम वाली नही आ रही है। दुसरी ढूंढने
का फ़रमान जारी हो चुका था। लेकिन घर पर काम करने वाली बाई ढूंढना शॉपिंगमाल मे सामान ढूंढने
जैसा कोई आसान काम थोड़े ही है।
"देखिये जी! शाम तक किसी बाई को ढूंढ लाना वरना कल सुबह का खाना किसी होटल से बुलवा
लेना........ ड्युटी पर जाउं या खाना बनाउं ? ये रोज-रोज मुझसे हो नही सकता। और फिर समय पर
किचन खाली भी नहीं मिलता " रश्मि ने जैसे लास्ट अल्टीमेटम थमा दिया था।
घर पर भाभी और पत्नी की महाभारत बढती ही जा रही थी। माँ इस महाभारत से बचने के लिए दर्द के
बावजूद किचन मे घुसने को तैय्यार हो जाती थी। माँ की ये पुरानी आदत थी। विवाद बढाने के बजाय
उसे ख़त्म करने के लिये वह खुद उस काम को करने के लिये भीड़ जाती थी जिससे विवाद की
सम्भावना हो। माँ का किचन मे घुसना भी घर की बहुओं के लिये एक नई समस्या पैदा कर रहा था। ये
हम भाइयों और पिताजी को भी मंजूर नही था। किंतू कोई समस्या मंजूर ना होना और उस समस्या का
हल होना दो अलग बाते है।
बात ये नही है की हम भाइयों की पिमेत्नयां काम-चोर है या घर मे उन की बनती नही है। दरसल दोनो ही
स्कूल मे टीचर है। सुबह जल्दी उठ कर ड्युटी पर जाना उनकी मज़बूरी है। जिस टीचर की ड्यूटी को
कभी बहुत आराम दायक माना जाता था आज वही ड्यूटी सबसे कठिन कामों मे गिनी जाती है। पढ़ाने से
इतर सभी कामों मे जिस तरह से शिक्षकों को झोंका जाता है उसका कोई सानी नही ह।इन कुंठित
शिक्षकों से भविष्य निर्माण की आशा भी की जाती है। उनसे यह उम्मीद भी की जाती है की वे छात्रों से
नम्र और सहानुभूति का व्यवहार करे। पुलिस और शिक्षक किसी से सहानुभूती रखें यह अपेक्षा उन पर
एक और अत्याचार ही है।
बारिश के मौसम मे घर पर जो मुसीबत बरस रही थी उसे कौन सा छाता लगा कर रोकूं ये मेरी समझ मे
नही आ रहा था। इसीचिंता मे दो दिन और ग़ुज़र गये। इसी बीच मैने अपने कई मित्रों को कहा,
रिश्तेदारों से बात की लेकिन  इन दो दिनों मे भी कोई इंतजाम नही हो पाया।
कल रात से ही तेज़ी से बरस रही बारिश सुबह होने पर भी बंद नही हुई थी। गालियां और सड़के पानी से
लबालब थी। सुबह जैसे-तैसे रसोई से निपट कर रश्मि ने स्कूल जाने के लिए स्कूटर उठाया किंतु वह
स्टार्ट होने का नाम ही नही ले रहा था। वाश- बेसिन  पर दाढ़ी बनाते हुए मै समझ गया था कि ग़ुस्से का
सैलाब आज मुझ पर ही आयेगा।
"सुनिए ........." जोर की कर्कश आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा। मैने छतरी ढूंढने के लिए इधर-उधर नजर
दौड़ाई लेकिन रश्मि की दूसरी तेज़ आवाज़ ने मुझे बिना छतरी,बाहर की और दौड़ लगाने को मजबूर
किया।
"सुन रहे.........हो?"
’आ रहा हूं भाई.... "
"ये देखिो स्टार्ट नही हो रहा है...... जाने कौन पाप किये  है मैने.....देखो ज़रा"
रेन कोट की केप के नीचे रश्मि का तमतमाया चेहरा देखते मै बरसती बूँदो मे आगे बढ़ा। दो चार बार
सेल्फ़ स्टार्ट करने की कोशिश की। ये देख वह बोली...
"ये तो मै भी कर सकती हूं । किक लगाना पड़ेगी इस लिये आप को बुलाया है"
"हां...हां....... लगाता हूं" मैने कहा।
गाड़ी को जैसे-तैसे मेन स्टेण्ड पर खड़ी कर मैने किक मारना चालू किया। चार-छह किक खा कर आखिर
स्कूटर स्टार्ट हो ही गया। उसके जाने के बाद बारिश मे पूरी तरह भीग चुका मै, घर के भीतर आया।
नहाने की ज़रूरत है भी या नही, यह सोच ही रहा था कि डोरबेल की आवाज़ से चौंक गया। लगा रश्मि
का स्कूटर फिर बंद हो गया। सोच ही रहा था कि बच्चे की आवाज़ आई...
"पापा..... देखो कौन आया है"
"कौन है बेटा?" पूछते हुए मै बाहर की ओर आया तो देखा, दरवाज़े पर एक वृद्ध सी महिला बारिश से पूरी
तरह भीगी खिड़ी थी। गहरा ताम्बे सा रंग। माथे परसुर्ख लाल रंग का बड़ा सा टीका और चहरे पर छाई
झुर्रियों मे जमाने भर का अनुभव समेटी यह बुढ़िया क्यों आई है मै समझ नहीं पाया। पहले लगा पुराने कपड़ों के बदले बतरन देने वाली  कोई होगी, लेकिन बतरनो का टोकरा कहीं दिखाई नहीं दिया।
’जी,कहिये ?" मैने बड़ी विनम्रता से उनसे पूछा।
"साहब मुझे द्विवेदी जी ने भेजा है" कांपती सी आवाज़ मे वह बोली... "एल.आई.जी. वाले द्विवेदी जी"।
मै समझ गया। ऑफ़िस मे मेरे साथ ही काम करते है। पर क्यूं भेजा है यह मै अभी भी समझ नही पाया।
"आपको घर पर काम के लिये ज़रुरत है ?" उन्होने पूछा।
मै पशोपेश मे पड़ गया। लगभग माँ की उम्र की ही होगी ये बुढ़िया। मै कुछ सोचूं उससे पहले ही उन्होने
पूछा
"मै भीतर आ सकती हूं?"
मैने थोड़े संकोच के साथ उन्हे भीतर आने को कहा।
"देखिये यहां हम सभी को सुबह जल्दी होती है। तो आपको भी सुबह ७ बजे तक यहां खाना तैयार करना
होगा।"
"जी मै कर दूँगी "।
"कहां रहती है आप" मैने पूछा।
’जी बारह भाई’ वे बोली।
"कैसे आयेगी इतनी जल्दी?"
"जी मै आ जाउंगी आप चिंता ना करे"
मै चिंता भले ही ना करूँ पर माँ की ही उम्र की उस महिला को देख कर मन मान नहीं रहा था कि उसे
काम पर रख लूं। किंन्तु सुबह को दिए पत्नी के अल्टीमेटम ने मन को समझा दिया। कुछ दिन तो काम
चल ही जायेगा। आगे की फिर देखेंगे की तर्ज  पर मैने उन्हे माँ से मिलवाया। सारी बात जान कर माँ उन्हें किचन में ले गयी।
आजी.....! जी हाँ, ये औरत महाराष्ट्र के मराठवाडा क्षेत्र की थी सो हम उन्हे आजी ही कहने लगे थे। कम
उम्र मे पति ने इन्हे घर से निकाल दिया था। पढ़ी-लिखी थी नहीं तो बतरन मांजने कपडे धोने या रोटियां बनाने का काम ही कर सकती थी। काम के चक्कर मे घर से बाहर रहने पर बच्चे पर भी ध्यान नहीं दे पाई
सो वह भी ठीक से पढ़ लिख नहीं पाया और गैर जिम्मेदार निकला। किंतु ये पतिव्रता अभी भी उस पति के
नाम का टीका लगा कर अपनी और उस धोकेबाज पति की निशानी इस बिगडेल बेटे तथा बेटे के परिवार
यानी पत्नी और दो बच्चों के ख़र्च की जवाबदारी इस वृद्धावस्था मे भी निभा रही थी।
ख़ैर ......आजी रोज आने लगी। समय पर आ जाती। काम मे भी ठीक थी। उम्र अधिक थी सो पत्नी ने
भी ज्यादा चिंता या पूछताछ नहीं की। जवान नौकरानी को काम पर रखना किसी पत्नी के लिए आसान
नहीं होता।विवाह के दौरान दिए गए सातों वचनों को सुन विवाह करना और उन वचनों को देने वाले पर
भरोसा करना बिलकुल अलग बात होती है। ख़ैर। सात आठ महीने तो सिलिसला निर्बाध चलता रहा।
सारे काम समय पर हो जाते थे।
खाना बनाने के बाद किचन का ओटला एकदम साफ़ रखना  ,कमरों मे झाड़ू पोंछा करने के साथ कमरे मे
फ़ैले कपड़ों को घडी करना, बरतन साफ़ करने के साथ उन्हे रेक मे ज़माना जैसे ये कुछ ऐसे काम थे जो
आजी के साथ काम की शतों मे जोड़े नहीं गए थे पर वे उन्हे अपनी मर्ज़ी  से कर देती थी।
माँ को बातचीत और मन बहलाव का एक साथी मिल गया था। पत्नी व भाभी के कुछ अतिरिक्त्त काम भी
आजी के द्वारा हो जाते थे। माँ का डॉक्टर के यहाँ जाना कम हो गया था। सभी ख़ुश थे। आजी अब सिर्फ़
एक काम वाली नही रही थी,घर के एक सदस्य की मानिंद थी।
मेरा छोटा बेटा टी वी और वीडिओ गेम भूलकर आजी से कहानी सुनने को बेताब रहता था।जिस काम के
लिए उसको मुझ परनिर्भर होना था उसकी पूर्ती आजी द्वारा हो रही थी । घर के बुज़ुर्ग सदस्यों पर भी
आजी की पकड़ बढती जा रही थी। बार-त्यौहार याद दिलाना या उन अवसरों पर पूजा की तैयारी कर
देना उनके बाएं हाथ का काम था . पर पत्नी या भाभी भी उन्हे इनाम वग़ैरह देने लगी थी। मेनेजमेट के
कुछ गुण औरतों मे जन्म-जात होते है जो मेरे घर की औरतों मे थे और .............शायद आजी मे भी ।
कुछ दिनों मे जब मुझे लगा कि चलो सब ठीक हो गया , अचानक तीन दिन आजी गायब रही। पत्नी,
भाभी, माँ सभी परेशान थे।
ये तो किस्मत अच्छी थी कि गर्मी की छुट्टियां चालू हो चुकी थी। भाभी व श्रीमती जी घर पर ही
थे। आजी के घर पर फोन भी नहीं था। तीसरे दिन शाम को ऑफ़िस से जैसे- तैसे जल्दी छूट कर आजी
का घर ढूंढते हुए उनके यहाँ पहुँचा। पता चला ब्लडप्रेशर बढ़ने से चक्कर खाकर गिर पडी थी क़िस्मत
अच्छी थी की फ्रेक्चर नहीं हुआ। दो दिन अस्पताल मे रहना पड़ा था अब ठीक है। कहने लगी
"कल से आ जाउंगी।"
"नहीं आजी........ एक दो दिन आराम कर लो फिर आ जाना।"
मैने कहा और घर आ गया। घर मे घुसते ही माँ ,भाभी पत्नी तीनों मुझ पर पिल पड़े। मैने सारी बात उन्हे
बताई।किन्तु मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब भाभी बोली....
"दो दिन बाद का क्यों बोल दिया। आने देते वो आ रही थी तो"
"और क्या यहाँ कौन सा बड़ा काम होता है ,रोटी ही तो बनाना पड़ती है सब्जी माँजी बना लेती" रश्मि
बोली ।
"अरे यार कुछ तो दया करो। बेचारी इस उम्र मे काम कर रही है यही क्या कम है? आ जायेगी कल से"
"तुम ज्यादा दया मत दिखाओ। ये सब बहाने बहुत देखे है हमने।" रश्मि ने मुझसे कहा। मैने कोई जवाब
नहीं दिया।  कुछ मुद्दों पर बात करने से बेहतर होता है चुप रहना। मुझे हाल ही मे मशहूर हुआ वो शेर याद
आ गया 'हजारों जवाबो से अच्छी है ख़ामोशी मेरी, कितने  सवालों की आबरू ढकती है '।किंतु  मन ही
मन मै सोच रहा था कि कैसे कोई स्त्री,किसी स्त्री के प्रति इतनी निर्मम हो सकती है? ख़ैर अगले दिन से
आजी फिर से काम पर आने लगी और जिंदगी फिर अपने ढर्रे पर लौट आई।
अगले एक डेढ़ महीने कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन फिर से आजी नहीं आई । स्कूल चालु हो गए
थे सो तत्काल उसी शाम मै आजी के घर पंहुचा। पता चला तेज बुख़ार है। मै कुछ रुपये दे कर घर आ
गया। घर पर पूछने पर बता दिया की तेज बुख़ार है। पत्नी फिर से चिढ गई और बोली
"इससे काम नहीं चलेगा। कोई दूसरी काम वाली ढूँढना पड़ेगी। महारानी के नखरे बढ़ते ही जा रहे है।"
मै बोला "अरे बीमार है वो....... कैसे काम करेगी? मै खुद देख कर आ रहा हूँ।"
"हो......बीमार है अरे तुम लोग नहीं समझ सकते इन औरतों के नखरे। " रश्मि मुझसे बोली। मै मन ही मन
मे सोचने लगा सही कह रही हो।औरतों के नखरे तो औरत ही समझ सकती है। लेकिन बोला कुछ नहीं।
अगले दिन  सुबह-सुबह आजी काम पर आ गई। चेहरे पर थकान व कमजोरी साफ़ दिखाई  दे रही थी।
उस वक़्त  तो मैने कुछ नहीं कहा लेकिन  पत्नी और भाभी के जाने के बाद मैने झाड़ू लगाती आजी से
कहा.……
" क्या जल्दी थी आजी..... अकाद दिन  और आराम कर लेती "
'नही भाऊ " वह मुझे भाऊ ही कहती थी।
"भाभी चार दिन के पैसे काट लेती तो मेरा बजट गड़बड़ा जाता। वो तो आपने डॉक्टर के पैसे दे दिए
वरना मुसीबत ही है"।
और तब विस्तार  से बातचीत मे पता पड़ा कि पिछली बार छुट्टी पर आजी के पैसे काट लिए गए थे।
मात्र पैसे की जरुरत के लिए पकी उम्र मे भी काम करने वाली इस वृद्धा के पैसे कट जाने का क्या
महत्व है मै समझ सकता था। मै कुछ बोला तो नहीं किंतु  इस माँ तूल्य महिला से घर के काम
करवाना एक टीस की तरह मन मे चुभने लगा।
अगले कुछ दिनों मे कई बार इस तरह की घटनाओं का दोहराव हुआ। जो महिला घर मे सब को प्रिय थी
वह एक बोझ की तरह लगने लगी। माँ का स्वास्थ्य सुधर रहा था लेकिन आजी का स्वास्थ्य लगातार
बिगड़ता जा रहा था। कई बार उन्हे बदलने का विचार भी आया किंतु दूसरी कामवाली नहीं मिलने से बात
टलती रही। आजी इन बातों से अनजान नहीं थी और इसी लिए काम छूटने के डर से
बीमारी,ठण्ड,गर्मी,या बरसात की चिंता किए बिना काम पर आती रही।
और आज आये फोन के बाद मै रात भर अपने आप को इस मौत का जवाबदार मानता रहा। आजी का बेटा ,
बहु , मेरी माँ, पत्नी या भाभी भैया माने या नहीं माने किन्तु  मै मान रहा था। अपनी इन भावनाओं को
किसी से बाँट भी नही सकता था। जानता था कि बाजारवाद के इस घोर निर्मम व्यावसायिक युग मे भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है।
सुबह आजी के घर पहुंचा अर्थी उठने ही वाली थी। आर्थिक हालत के चलते शव वाहन की व्यवस्था नही
थी सो पैदल ही श्मशान जाना था। औपचािरकतानिभाने की भी एक सीमा होती है। वाहनों के आदी इस
युग मे मेरे लिए यह मुश्किल काम था इस कारण कुछ दूर पैदल चल कर मै मोटरसाइकल लेकर सीधे
श्मशान पहुचा। तमाम कर्मकाण्डों के बाद अग्नि दी गयी। इतनी देर वहां रुकना कई लोगों के लिए भारी
होता है और कितनी ही बाते इन परंपरा के विरूद्ध फुसफुसाई जाने लगती है। कुछ देर के
बाद चलने की बारी आई और मैने भी अपने कर्ज़ को चुकाने के गरज की मानिंद कंडे के कुछ टुकड़े
आजी की चिता पर अर्पित किये । शायद अपने किये  के प्रायश्चित्त के रूप मे भी।
जैसे ही सब लोग वापस जाने के लिए निकले आजी का बेटा तेजी से आगे बढ़कर मेरे पास आया। मै
समझ गया कि मुझसे कुछ पैसों की मांग करेगा। कुछ मौके ऐसे होते है जहाँ की गयी मांग को ठुकराना
अच्छे से अच्छों के बस मे नहीं होता । मानिसक रूप से मै तैयार भी था,और पैसे साथ रखकर लाया भी
था लेकिन उसने एक कोने मे ले जाकर जो प्रस्ताव मेरे समक्ष रखा उससे मै आवाक रह गया। बड़े कातर स्वर
मे सारी विवशता चेहरे पर लाकर वह बोला
" बाबूजी ! बात आप को अजीब लग सकती है लेकिन मेरी मजबूरी को समझ कर गौर कीजिएगा । आपसे
यही गुजारिश है कि दूसरे किसी को काम पर मत रखियेगा। यदि आप को कोई आपित्त न हो तो इन दस
दिनों के बाद मेरी बेटी आपके यहाँ आ जाया करेगी। घर के सभी कामों मे बड़ी होशियार है "
उसकी ये बात सुनते ही मुझे उसकी बारह बरस की बेटी का चेहरा याद आ गया जो मैने तब देखा था
जब मै आजी की तबियत देखने उनके घर गया था । टूटी- फूटी  ट्रे मे पानी का ग्लास लेकर फटी हुई फ्रॉक मे
सामने खड़ी उस कन्या का मासूम चेहरा मुझसे कैफियत मांग रहा था ' अंकल मुझे स्कूल जाना चाहिए या काम पर ?' और मेरे पास कोई जवाब नहीं था। हो भी सकता है क्या ?

-दिलीप लोकरे,
diliplokreindore@gmail.com
Mobile- 9425082194
E -३६, सुदामा नगर ,नानी माँ धर्मशाला के पास , इंदौर ४५२००९ म. प्र.

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