बुधवार, 14 दिसंबर 2011

Drama- Maxim Gorkys- 'Semaga'






Maxim Gorky
Semaga
सेमागा जहाँ बैठा था वो पुराने शहर के बीच में एक तहखाने में बना गन्दा सा बार था .पूरे माहौल में सिगरेट की गंध के साथ एक अजीब सी बदबू छाई हुई थी .बार की छत में बीचोबीच एक ऊँचा गुम्बद था जिसमे लटके झूमर में एक पीला लट्टू जल रहा था. मद्धिम रोशनी पुरे कमरे में फैली थी. लेकिन इस रोशनी में किसी का चेहरा देख पाना मुश्किल था. जो भी लोग यहाँ बैठे थे वो अच्छी तरह से जानते थे की वे यहाँ कानून से परे है, इस कारण एक अजीब सी बेफिक्री उनके चहरे पर देखी जा सकती थी.शरद ऋतू का भयंकर तूफान थोड़ी देर पहले ही थमा था, जिसके कारण बाहर चारो और बर्फ जमा थी. ठण्ड के कारण हड्डियाँ जमा देने वाले इस मौसम का असर तहखाने के भीतर कही नजर नहीं आता था.शहर के तमाम बिगडैल यहाँ इकट्ठे थे.उनके उटपटांग गानों के शोर से सारा माहौल ही बिगड़ा हुआ था.लेकिन सेमागा इन सब बातों से बेखबर उँगलियों में दबी सिगरेट की ओर एकटक देखे जा रहा था. उसके सामने पड़ी लकड़ी की टेबल पर एक वोदका की बोतल, ग्लास और खाने के लिए कुछ भुने आलू जैसी कोई चीज पड़ी थी. अचानक तहखाने का दरवाजा भड-भडा कर खुलता है बड़ी हड़बड़ी के साथ जो व्यक्ति भीतर आया उसका नाम पेत्रोव है . देहिक भाषा से ही बहुत परेशान दिखाई देने वाले पेत्रोव ने बार में चारो ओर नजर घुमाई. कोने में बैठे सेमागा को उसने जैसे ही देखा वो तेजी से उसके पास आया और बोला
पेत्रोव - "सेमागा तुम यहाँ आराम से बैठे दारू पी रहे हो और बाहर पुलिस तुम्हे भूखे भेड़िये की तरह ढूंढ रही है "
सेमागा - "तो"
बड़ा ठंडा सा जवाब. उसके चौड़े चहरे पर घनी सलेटी रंग की दाढ़ी के बीच चमकने वाली बड़ी-बड़ी आँखों में भय का नामो-निशान भी नहीं था.
पेत्रोव -"तो? तो तुम्हे यहाँ से फ़ौरन भागना नहीं चाहिए ?"
सेमागा - 'क्यों'
पेत्रोव - "क्यों की वे तुम्हे ढूंढते हुए कभी भी यहाँ आ सकते है. मेरी बात का विश्वास करो, वो न सिर्फ पैदल चारों तरफ से इस इलाके को घेर रहे है बल्कि घोड़ों पर भी है"
सेमागा - "तुम कैसे कह सकते हो की वो मुझे ही ढूँढ रहे है ?"
पेत्रोव - "क्यों की मैंने उन्हें निकिफोरीच से तुम्हारे बारे में पूछते सुना है"
सेमागा - "क्या? निकिफोरीच पकड़ा गया ?"
पेत्रोव - "हां. उन्होंने उसे पकड़ लिया."
सेमागा - "कहाँ"
पेत्रोव - "चचिमारिया के ढाबे पर. मै भी वहां उसके साथ था, लेकिन जैसे ही पुलिस आई मै पीछे की बागड़ फांद कर किसी तरह भाग आया."
सेमागा - "ठीक है.अब घबराओ मत थोड़ी देर आराम से यहाँ बैठो."
पेत्रोव - "आराम से बैठो? क्या मतलब है तुम्हारा?"
सेमागा - "पेत्रोव मै जानता हूँ उन्हें यहाँ आने में वक्त लगेगा. सरकारी तनख्वा पर पलने वाले इतने ईमानदार नहीं हो सकते की बर्फीले तूफान में काम करे."
पेत्रोव - "ऊह... तब ठीक है. वैसे भी ऐसी सर्दी में बाहर कौन जाना चाहेगा. लेकिन सेमागा तुम इतने बेफिक्र होकर कैसे इन सब बातों से निपट लेते हो? ऐ... बारीक़ एक वोदका मेरे लिए भी.... वैसे मै तुम्हे आज तक समझ नहीं पाया. तुम कभी क्या, कभी क्या होते हो, परसों तुमने उस पुलिस वाले अलेक्झेड्रोव को इतनी बेदर्दी से नहीं मारा होता तो वे सब आज तुम्हे नहीं ढूंढ रहे होते."
सेमागा - "मैंने मारा ?... और उसने ?...उसने वसीली के साथ क्या हरकत की ? पहले उसने वसीली को ठंडी बरफ पे लिटाया, फिर उसके नाखून उखाड़े और...फिर ...फिर उसकी पेंट उतारकर....... क्यों छोडू मै उसे ?
पेत्रोव - "लेकिन तुमने भी उसके साथ कोई कम बुरा सलूक नहीं किया ...... तुमने भी उसका सर ऐसे फोड़ा जैसे नान के साथ कोई टमाटर फोड़ कर खाए"
सेमागा - "यही मेरा तरीका है पेत्रोव, भले ही वे लोग मुझे आतंकवादी गद्दार देशद्रोही कहे, मुझे उसकी परवाह नहीं. हम जैसे नहीं हो तो ये सरकारी पैसे पर पलने वाले लाट साहब गरीबों का खून चूस ले और उसे आह भी न करने दे . कहाँ जाये ऐसे अनपढ़ गरीब...... जिन्हें ये सरकारी लोग जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझते?..... तभी ऐसे लोग हमारे पास आते है ....और मेरे पास यदि ताकत है तो मुझे इनकी मदद करना ही चाहिए. यही अपुनी समाज सेवा का स्टाइल है.
पेत्रोव- " लेकिन सेमागा.. वे ऐसा क्यों करते है ये सोचा है कभी ? वे भी तो कुछ नियमों से बंधे है."
सेमागा- "हाँ सोचा है.पर एक बात बताओ पेत्रोव ? क्या अपने हक़ के लिए लड़ना गलत है ? वे बेचारे तो सिर्फ रोज की रोटी और थोड़ी सी ऐसी सुविधा ही चाहते है न जो जीने के लिए जरुरी है. इनकी अय्याशी में हिस्सेदारी तो नहीं मांग रहे वो लोग तब क्या गलत कर रहे है ?"

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

Virender Sehwag
















Anything is possible for Virender Sehwag. he was out for 219, the highest individual score in Thursday at Holkar stadium in Indore. I was a witness of the highest individual score in ODI there. Cricket is a team sport,But not when Sehwag is in the mood. He smashed the highest individual one-day international score of 219 as India crushed the West Indies by 153 runs in Indore.



Sehwag's record-breaking performance led India to 5-418 in the fourth ODI and surpassed Sachin Tendulkar's mark of 200, as well as India's previous highest ODI score.Both record-breaking knocks were scored in the same Indian state - Madhya Pradesh - and it was the manner of Sehwag's innings that most impressed.



He reached the magical milestone in the 44th over before he was dismissed for 219 off 149 balls in the 47th over.



-Dilip Lokre



सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

last leaf o henry short stories

' आखिरी पत्ती '
पात्र - [१]-सू -३० वर्ष [२]-जोंसी -२६ [३]-डॉक्टर ३५-४० वर्ष [४]-बेहरमेन ६० -६५ वर्ष
टेढ़ी मेढ़ी गलियों के जाल से सजी गन्दी,तंग बस्ती के एक तीन मंजिले मकान की ऊपरी मंजिल का जर्जर घर | सामने से देखने पर दो कमरों में बटा दिखाई देता है | बाई ओंर के हिस्से में सू का पेंटिंग स्टूडियो व बाई और जोंसी का बेडरूम | पलंग के पीछे खिड़की | खिड़की से बाहर पुरानी मिल की दीवार और दीवार पर फैली एक बेल। [ अपने पेंटिंग सामान को जमाते -सम्हालते लगातार बडबडा रही है| ]
सू- "कब तक .... ? न जाने कब तक ऐसे ही मरना पड़ेगा ? सपनों का शहर...... । भाड़ में जाये ऐसा सपना । क्या यही सब करने इस शहर में आई थी ? मजबूरी न होती तो टेढ़ी मेढ़ी गलियों वाले इस बदबूदार मोहल्ले के ऐसे घटिया मकान में कभी नहीं रहती मै । कहते है इस शहर में कला कि क़द्र है ... । कलाकार कि किस्मत खुलती है यहाँ .........खाक खुलती है ? आसपास के कमरों में रहने वाले इन मरियल बूढों को देखकर तो नहीं लगता ...आधी उम्र हो गई ...आखें पथरा गई ...हाथ पांव तक कांपने लगे है ,लेकिन अभी भी दम भर रहें है । केनवास पर ब्रश चलाते है तो लगता है पान पर कत्था लगा रहें हो .... । फिर भी दिल के अरमान खत्म नहीं हुए । बड़ा कलाकार बनेंगे । हूँ.........बन गए ...| कहाँ कहाँ से आ जाते है सस्ते किराये वाले इन मकानों में ? मेरी मजबूरी नहीं होती न ....तो स्टोव से उठने वाले केरोसिन के धुंए से भरे इस मोहल्ले में झांकती भी नहीं कभी । कांसे का एक लोटा टीन कि कुछ तश्तरियां और एक स्टोव ... बस , बसा ली गृहस्थी ........ न नहाने के लिए ठीक बाथरूम न लेट्रिन .....चारो और फैली अजीब सी बदबू ......... और अब सारे शहर में फैली ये निमोनियां कि बीमारी [ खीज कर ] क्यों पड़ी हूँ मै यहाँ ?..... भाड़ में जाये ये सपनों का शहर, यहाँ के लोग और सपने ..... [ एक ठंडी साँस के साथ ] बस, जोंसी कुछ ठीक हो जाये ... मै उससे कह दूँगी कि अब मै यहाँ एक पल भी नहीं रुक सकती .... । ओह ...जोंसी मेरी दोस्त ... बस यही एक सच्ची साथी मिली मुझे इस अजनबी शहर में ।
[ मंच के बीच में दोनों कमरों को बांटने वाली दीवार में बने दरवाजे से डॉक्टर का प्रवेश]
डॉक्टर- " सुनो सू ...! मैंने अपनी सारी कोशिश कर ली है ...लेकिन तुम्हारी इस सहेली के बचने कि संभावना बिलकुल भी नहीं है । मै समझ नहीं पा रहा हूँ कि निमोनियां जैसी बीमारी में इसका ये हाल कैसे हो गया ? देखो सू मुझे लगता है कि इसकी जीने कि इच्छा शक्ति खत्म हो गई है । इसके दिमाग पर पर तो भूत सवार हो गया है कि अब वह अच्छी नहीं होगी । मै अपनी सारी कोशिशे कर रहा हूँ लेकिन बीमार का ठीक होना भी उसकी अपनी इच्छा शक्ति पर ही निर्भर होता है । अब यदि कोई खुद बाहें फिलाये मौत का स्वागत करने को तैयार हो तो डॉक्टर भी क्या करेगा ? अच्छा सू मुझे एक बात बताओ ? क्या इसके दिल पर कोई बोझ है ? "
सू- " पता नहीं डॉक्टर । ऐसी कोई बात उसने मुझसे कभी नहीं कई ।...वह इस शहर में बड़ा कलाकार बनने का सपना लेकर आई है और अकसर कहती है कि एक दिन नेपल्स की खाड़ी बनाने कि बड़ी तमन्ना है ।"
डॉक्टर- "पेंटिंग ?.... हूँ ........ लेकिन मेरे पूछने का मतलब था कि क्या इसके जीवन में कुछ ऐसा है जिससे जीने कि इच्छा तीव्र हो .........मसलन ....जैसे कोई नौजवान ?कोई प्रेमी "
सू- " नौजवान !...प्रेमी ......? छोड़ों भी डॉक्टर .ऐसी तो कोई बात नहीं "
डॉक्टर- " ओःह ..... तो ये बात है | सारी गड़बड़ यही है | अब कोई मरीज खुद यदि अपनी अर्थी के साथ चलने वालो की संख्या गिनने लगे तो दवाई क्या खाक कम करेगी ? खैर , तुम यदि इसके मन में कोई आकर्षण पैदा कर सको तो बात बने ...... ठीक है ? मै चलता हूँ | सारे शहर में निमोनिया के मरीज फैलें है मुझे उन्हें भी देखना है | "
[ डॉक्टर जाता है | सू अपने आप में सुबकने लगती है | कुछ देर बाद अपने आप को स्थिर करने की कोशिश करती , पेंटिग का सामान समेट कर खुद को उत्साहित दिखाने के लिए सीटी बजाती हुई जोंसी के कमरे में जाती है | जोंसी अपने बिस्तर पर चादर ओढ़े , बिना हिले - डुले एक टक खिड़की की ओर देखते पड़ी है | सू को लगता है सोई है | वह सिटी बजाना बंद कर ईजल व केनवास लिए चित्र बनाना शुरू करती है | चित्र बनाते-बनाते उसे कोई धीमी आवाज सुनाई देती है , जैसे कोई कुछ दोहरा रहा हो | वह तेजी से जोंसी के बिस्तर के पास जाती है | जोंसी खिड़की की और एक - टक देखती गिनती बोल रही है , लेकिन उलटी ]
जोंसी- " बारह .... [ कुछ देर बाद ].ग्यारह.........[ अचानक एक साथ ] नौ.......आठ ......सात.......... [ सू उत्सुकता से खिड़की की और देखती है ]
सू- " क्या हुआ जोंसी ? क्या है वहां ? [ खिड़की में जा कर देखती है ]......कुछ भी तो नहीं ? ये पुरानी ईंटों की दीवार और उस पर फैली ये बेल ..... ये तो कब से है यहाँ ......."
जोंसी- [ धीमे और थके स्वर में ] " छः ..........| अब यह जल्दी जल्दी गिर रही है .............[ ह्नाफ़ने का स्वर ] तीन ..........तीन दिन पहले तक.......... यहाँ करीब सौ.......सौ ...... से ज्यादा थी | वह देखो ...एक ...एक और गिरी.......... " [ खांसी व हांफना ] अब ...बची ..केवल..पाँच...."
सू- " पाँच ..? पाँच क्या..... ? [ आश्चर्य से खिड़की को देखती है ] क्या है वंहा ? मुझे नहीं बताओगी ?
जोंसी- " पत्तियां.....| उस बेल की पत्तियां ....गिर.....गिर रही है ......जिस वक्त आखिरी पत्ती गिरेगी........... मै..... भी.... | डॉक्टर ने नहीं बताया तुम्हे ? मुझे .....मुझे तीन दिन से पता है .....| "
सू- [ तिरस्कार से लेकिन राहत के भाव से ] " ओफो ...! मैंने तुझ जैसी बेवकूफ लड़की नहीं देखी..........| अब...अब तेरे ठीक होने का इन पत्तियों से क्या सम्बन्ध ..? वह बेल तुझे अच्छी लगती है इसलिए ? गधी कही की.... अब अपनी ये बेवकूफी बंद कर .....| अभी थोड़ी देर पहले डॉक्टर ने मुझे बताया ...तेरे ठीक होने के बारे में | हाँ क्या कहा था उन्होंने.....? हाँ ...!!! संभावना रुपये में चौदह आना !!! अरे मेरी लाड़ों ... इससे ज्यादा जीवन की संभावना तो तब भी नहीं होती जब हम......... बस - ट्रेन या टेक्सी में बैठते है.....हा.... हा..." [ हंसती है ] " अब थोडा शोरबा पीने की कोशिश कर और मुझे ये तस्वीर बनाने दे, ताकि इसे उस खडूस संपादक को बेच कर मै तेरे लिए दवाईयाँ ला सकूँ | "
जोंसी- नहीं सू !... अब तुझे .....मेरे लिए शोरबा - शराब या दवाईयाँ लाने की कोई जरुरत नहीं है ..... वह..वह देख एक और गिरी......... अब सिर्फ चार रह गई ...हाँ ...अँधेरा होने से पहले आखिरी पत्ती को गिरता देख लूं ...बस फिर मै भी चली जाउंगी | "
सू- ओह जोंसी .... ! दिल छोटा मत कर | देख तुझे कसम खाना होगी की जब तक मै यहाँ काम करूँ तब तक तुम खिड़की से बाहर नहीं देखोगी | ...मुझे कल सुबह तक यह तसवीर संपादक को देनी है ... यदि मुझे रोशनी की जरुरत नहीं होती तो मै ये खिड़की ही बंद कर देती "
जोंसी- " क्या तुम दुसरे कमरे में बैठ कर काम नहीं कर सकती ? "
सू- " नहीं जोंसी | मुझे तुम्हारे पास ही रहना चाहिए | आलावा मै तुम्हे उस मनहूस बेल को देखने देना नहीं चाहती | मेरे यहाँ होने से तुम्हारा ध्यान उस तरफ नहीं जायेगा |"
जोंसी- " कितनी देर ? .... आं.... आखिर कब तक रोकोगी मुझे ?....खैर काम खत्म होते ही बता देना | "
सू- " मेरा काम जल्दी खत्म होने वाला नहीं है | जोंसी...... तू उस खडूस को तो जानती ही है न ? संपादक कम हलवाई ज्यादा लगता है | बातों को जलेबी की तरह गोल - गोल घुमाता हुआ जब ताने कसता है न , तो लगता है की मेज पर पड़ा ग्लोब उठाकर उसके सर पर फोड़ दूं | "
जोंसी- " उसे गाली देने से क्या होगा सू...? जमीर बेच कर , अखबार मालिक के सामने कुत्ते की तरह दुम हिलाने की कुंठा उसे कहीं तो निकालना ही है , तो हम जैसे गरजमंद महत्वाकांक्षी आसान लक्ष्य है | और फिर बड़ा चित्रकार बनने का तो हमने ही सोचा है न ? "
सू- " हाँ ..सोचा तो था जोंसी , लेकिन बड़ा बनने के लिए इतने छोटे समझौते करना पड़ते है ये पता नहीं था | खैर....... तू सोने की कोशिश कर | मै नीचे से बेहरमेन को बुला लाती हूँ | खदान मजदूर का माडल उससे अच्छा कौन हो सकता है ? " अभी एक मिनिट में आई | मैं नहीं लौटूं तब तक हिलना मत | "
जोंसी- " नहीं सू | उस बुड्ढ़े खडूस को यहाँ मत लाना | खुद को महान समझाने वाला वो असफल कलाकार दिमाग खा जायेगा हमारा | "
सू- " नहीं जोंसी ऐसे मत बोल | बेचारा चालीस सालों से यहाँ पड़ा संघर्ष कर रहा है | परेशानी में ज्यादा शराब पीकर बकवास जरूर करता है लेकिन उसकी बातों में भी सच्चाई है | सफलता की कीमत जीवन के रूप में तो नहीं चुकाई जा सकती ? उम्र के इस दौर में और और कुछ नहीं कर सकता इस लिए हम जैसे कलाकारों के लिए माडल बनकर कुछ पैसे कमा लेता है | "
जोंसी- "क्या ख़ाक कमा लेता है ? जब कुछ कर सकता था तब किया नहीं | हर आढ़ी-टेढ़ी पेंटिंग बना कर यही मानता रहा की वही उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है
सू- " करेगा जोंसी जरुर करेगा | इस बेरहम दुनिया में इन्सान तय नहीं कर सकता की बाजार में उसकी कला की कीमत क्या है बल्कि बाजार यहाँ तय करता है की इन्सान किस भाव बिकेगा.......खैर मै अभी आती हूँ " [ जाती है ]
जोंसी- " जाओ सू ...... मै तो उस आखरी पत्ती को गिरते देखना चाहती हूँ | इंतजार की भी कोई हद होती है | पर मै अब अपनी हर पकड़ ढीली छोड़ कर इन पत्तियों की तरह नीचे-नीचे चली जाना चाहती हूँ | नीचे गिरने का भी एक आनंद होता है इसे मुझसे अच्छा कौन जान सकता है | "
[बाहर के कमरे से बेहरमेंन के जोर-जोर बोलने की आवाज | सू भी उसके साथ बड़-बड़ा रही है ]
बेहरमेंन- " क्या सू ....? अभी भी ऐसे बेवकूफ इस दुनिया में है ? एक सूखी बेल के गिरते पत्तों का जोंसी के जीने से क्या वास्ता ..अँ ? और मै तुम जैसे बेवकूफों के लिए माडल बनने के लिए तैयार हो गया , तो मुझसे बड़ा बेवकूफ शायद ही दूसरा हो .....और तुम ? तुमने उसके दिमाग में ये घुसने कैसे दिया ? ओह बेचारी जोंसी .......उसे तो अभी बहुत कुछ करना है.......... | "
सू- " वह बीमारी से बहुत कमजोर हो गई है ...... शायद बुखार से उसके दिमाग में ये अजीब कल्पना आ गई है की आखरी पत्ती......."
बेहरमेंन- '" तुम भी हो बेवकूफ लड़की .... अरे ये घटिया जगह जोंसी जैसी अच्छी लड़की के मरने के लिए नहीं है | बस कुछ ही दिनों में मै अपनी पेंटिंग पूरी कर लूँगा ... फिर देखना दुनिया उसे सर्वश्रेष्ठ काम न माने तो कहना | [ हलकी हंसी ] और तब इस बाजार से मै वह सब कुछ वसूल करूँगा जो मैंने यहाँ गवाया है | फिर हम यहाँ से चले जायेंगे , तुम और जोंसी भी समझी ? "
सू- "हाँ..हाँ समझ गई | लेकिन अब तुम जल्दी से मेरे माडल बन जाओ वरना वो खडूस संपादक ......."
बेहरमेंन- " हाँ तो चलो न ...मै कहाँ कुछ कह रहा हूँ "
[दोनो जोंसी के कमरे में आते है | जोंसी मुंह पर चादर ओढ़े सो रही है | दोनों उसे नजदीक से देख कर खिड़की तक जाते है | खिड़की पर पड़ा परदा हटा बाहर देखते हैं | फिर बिना एक शब्द बोले एक दुसरे की ओर देखते है | दोनों का चेहरा फक्क है | सू चुपचाप बेहरमेन को हाथ पकड़ कर बाहर के कमरे में लाती है ओर उसका चित्र बनाना शुरू करती है | ]
सू- " सपने सुहाने होते है यह सुनते आई थी लेकिन वह खतरनाक होते है यह यहाँ आ कर देखा | बड़े सपनों को देख छोटा लक्ष्य आसानी से पाया जा सकता है , मेरे पापा अकसर ऐसा कहा करते थे..."
बेहरमेन- " हँ.... सपनों की कोमलता हकीकत की पथरीली कठोर जमीन पर चूर-चूर हो जाती है ऐसा मेरा बाप कहता था ....... पर छोड़ों न सू ....अपना काम जल्दी खत्म करो , मुझे मेरी महान रचना भी पूरी करनी है........मै जल्दी जाना चाहता हूँ यहाँ से ...| "
[चलती बातचीत के बीच ही मंच पर फेड-आउट | संगीत का स्वर | पुनः प्रकाश होने पर सू जोंसी के पलंग के पास बैठी है | खिड़की पर अभी भी पर्दा पड़ा है | ]
जोंसी- [ जड़ स्वर में ] " पर्दा हटा दे सू .......... मै देखना चाहती हूँ ....| "
सू- [ विवश होकर अनमने भाव से खिड़की तक जा कर पर्दा हटाती है , फिर अचानक तेजी से पलटती है उसका चेहरा ख़ुशी से दमक रहा है ] " तुमने देखा जोंसी ....? ...देखा तुमने ?
जोंसी- " यह आखिरी है... मैंने कल शाम सोचा था यह रात में जरूर गिर जाएगी | रात भर मैंने तूफ़ान की आवाज भी सुनी | खैर ... यह आज गिर जाएगी तभी मै भी मर जाउंगी | "
सू- [ दुखी मन से जोंसी के तकिए पर झुक कर ] " ऐसा क्यों कहती हो जोंसी ? ..मेरे बारे में सोचा है ...? क्या करुँगी तेरे बिना ? "
जोंसी- " तुम्हे अकेले होने का डर है ?... पर कभी सोचा है अकेला कौन होता है ? लम्बी और रहस्यमई यात्रा पर जाने वाली आत्मा से ज्यादा अकेला देखा है कभी किसी को ? " [ मंच पर अँधेरा ]
[मंच के पीछे बनी खिड़की पर प्रकाश होता है | खिड़की पर पड़ा पर्दा सरका हुआ है | तेज प्रकाश में बाहर दीवार पर फैली बेल का आखरी पत्ता अभी भी मौजूद है | जोंसी बिस्तर पर न होकर कमरे में चहलकदमी कर रही है | घर के बाहर वाले हिस्से में मद्धिम प्रकाश जहाँ सू स्टोव पर कुछ पका रही है | अचानक जोंसी सू को आवाज देती है , स्वर की कमजोरी दूर हो चुकी है| ]
जोसी- " सू........सू ...."
[अपना काम छोड़ कर सू जोंसी के कमरे में आती है ]
सू- " जोंसी ......! ! ! ये मै क्या देख रही हूँ ....? तुम बिस्तर से बाहर ..... ? ओह भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है..| जोंसी मै बता नहीं सकती की मै कितनी खुश हूँ ... तुम ....जीत गई ...हाँ ...जीत गई तुम ...."
जोंसी- [ सू की बात काट कर ] " सूडी.... मै बहुत ख़राब लड़की हूँ ...| लेकिन इस खिड़की से देखो जरा | देखा उस पत्ती को ....? कुदरत की शक्ति ने उस आखरी पत्ती को वहीँ रोक कर मुझे बता दिया की मेरा समय खत्म नहीं हुआ अभी | और सू इस तरह मरना तो पाप है | मुझे अभी एक महान पेंटिंग को बनाना है | ला ...मुझे थोडा शोरबा दे ... और हाँ ..शीशा भी दे दे , और मेरे सिरहाने दो तकिये और लगा दे | [ स्वर उत्साह से भरा हुआ ]... मै बैठे-बैठे बाल ठीक कर लूं "
[मंच पर अँधेरा | संगीत प्रभाव के बाद पुनः प्रकाश होने पर घर के दोनों भाग प्रकाशमान | भीतर के कमरे में जोंसी पलंग पर बैठी है | डॉक्टर उसकी नब्ज देख रहे है | पास ही सू भी खड़ी है | ]
डॉक्टर- " गुड ... वेरी गुड...! कीप इट अप.... अब तुम जीत गई | तुम्हे बस अब ठीक देखभाल की जरुरत है | दवा अपना काम कर रही है | जल्दी ही तुम फिर पेंटिंग करोगी जोंसी ...ठीक है मै चलता हूँ ....| मुझे नीचे की मंज़िल पर एक दूसरे मरीज को भी देखना है...क्या नाम है उसका ..हाँ ..बेहरमेन | तुम तो उसे जानती हो न सू ? इस निमोनिया ने भी शहर में सभी को परेशान कर रखा है फिर भी पता नहीं ... उस बूढ़े को भीगने की क्या सूझी ? अब पड़ा है तेज बुखार में | इस उम्र में दवा भी कम ही असर करती है | खैर ... मुझे तो अपनी कोशिश करनी ही है ...चलता हूँ | "
[जाता है | मंच पर अँधेरा | पुनः प्रकाश होने पर जोंसी अपने पलंग पर बैठी कोई स्केच बनाते दिखाई देती है | सू का प्रवेश | खिड़की तक जा कर पत्ती को देखती है फिर जोंसी के पास आती है | ]
सू- " जोंसी .... माई लव ...| तुम्हे फिर से स्केच करते देख , मुझे कितनी ख़ुशी हो रही है मै बता नहीं सकती ...! लेकिन .... लेकिन तुम्हे एक बात कहना है .... बहरमेंन ......"
जोंसी- [ बात काट कर ] ...ओहो ..... क्यूं नाम लेती हो उस खूसट का ? इतने दिनों बाद ठीक हुई हूँ | क्यों उसकी याद दिला रही हो ? आते-जाते सीढ़ियों पर ज्ञान बांटता है | खुद तो कुछ कर नहीं पाया मुझे सिखाता है पेंटिंग कैसे करना है | अपनी महत्वाकांक्षा दूसरे पर थोपने की आदत ही इन बूढों के तिरस्कार का कारण बनती है| महान पेंटिंग बनाना है ? .... कब ? उम्र ही क्या बची है ? "
सू- [ गंभीरता से ] " नहीं जोंसी ....ऐसा नहीं कहते | दरअसल मुझे तुमसे एक बात कहनी है ...| आज सुबह अस्पताल में मिस्टर बेहरमेन की मृत्यु हो गई | ......सिर्फ दो दिन ...बीमार रहे वह ..| परसों चौकीदार ने उन्हें अपने कमरे में दर्द से तड़पता पाया था | वह कह रहा था की पूरी तरह से भीगे हुए थे बेहरमेन , यहाँ तक की जूते-मोज़े भी | शरीर बर्फ सा ठंडा हो रहा था | उसे नहीं पता ऐसी तूफानी और बर्फीली रात में कहाँ भीग कर आये | कमरे में एक सीढ़ी [ निसेनी ] दो चार रंगों में डूबे ब्रश और फलक पर हरा पीला रंग बिखरा पड़ा था | मिस्टर बेहरमेन अपने जीवन की श्रेष्ठ कलाकृति बनाना चाहते थे | सू .......जरा खिड़की के बाहर देख उस आखरी पत्ती को | क्या पिछले दो दिनों में तुझे कभी आश्चर्य नहीं हुआ की ये पत्ती इतने आंधी तूफान में भी हिलती क्यों नहीं ?...मेरी प्यारी सखी ...| जिस रात वह आखरी पत्ती गिरी , बेहरमेन ने पूरी रात भीगते हुए इसका निर्माण किया , देख यही है उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति.....!
[सन्नाटा .....सू अवाक सी बैठी है | धीरे-धीरे मंच पर अँधेरा लेकिन खिड़की के प्रकाश में बेल की पत्ती चमक रही है | फिर प्रकाश कम होते-होते मंच पर अँधेरा | ]
मूल कथा- ओ हेनरी
नाट्य रूपांतरण - दिलीप लोकरे
E- 36, सुदामा नगर , फूटी कोठी के पास
इंदौर- 452009 म.प्र.
diliplokreindore@gmail.com
mobile 09425082194

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

ब्लेकमेल या आन्दोलन

धत तेरे की ! मै कितना बेवकूफ हूँ ये मुझे आज पता चला | सच कह रहा हूँ | पिछले दिनों अखबारों में पढ़ कर ही मुझे मालूम हुआ की ब्लेकमेल क्या होता है | इससे पहले तक तो मै यही समझता था कि किसी छिछोरे युआ लड़के द्वारा 'लव-लेटर' लेकर लड़की को परेशान करना या फिर किसी पैसे वाले 'ईमानदार अमीर' से, डर दिखा कर पैसे ऐठना ही ब्लेकमेल होता है | भला हो इस सरकार का जिसने मेरी जानकारी में इजाफा किया कि प्रजातान्त्रिक देश में आन्दोलन करना भी ब्लेकमेल होता है |
सरकार से कोई बात मनवाना हो तो भूख हड़ताल या अनशन किया जाये, ये भी कोई बात हुई ? कितने ही रास्ते है उसके लिए | तोड़ फोड़ करो, वाहन दुकान जलाओ,लूटपाट करो,चक्काजाम करो,रेल पटरी पर बैठ जाओ |
लेकिन इन 'अम्योचर', गवांर, और अधकचरे आन्दोलनकारियों से यही परेशानी होती है | सरकारी पद और फौज से जब रिटायर हो जाते है तो आन्दोलन, माफ़ करना ब्लेकमेल करने लगते है | और ब्लेकमेल भी बड़े घटिया तरीके से | ब्लेकमेल करना ही है तो कोई सरकार से सीखे | मजाल है कि कोई सहयोगी मंत्री गड़बड़ करे या कोई सहयोगी दल आँखे दिखाए | न जाने कहाँ से सी.बी.आई.या इन्कमटेक्स जैसे डिपार्टमेंट सक्रीय हो जाते है | बेचारे राजनेताओ कि बात है ,कुछ न कुछ मामले तो निकल ही आते है | सब कुछ ईमानदारी से करते होते तो इतने कार्यकर्ताओं, और उससे भी बढ़कर जनता कि अपेक्षाओं पर 'खरे उतरकर' यहाँ तक पहुचते ? बस ! ऐसे ही मामले बन जाते है जी का जंजाल | मन मसोस कर चुपचाप बैठना पड़ता है और सरकार के इस ब्लेकमेल के खिलाफ कुछ बोल भी नहीं पाते | सहयोगी सरकार है कोई एक 'समर्थन' वापस ले भी ले तो दूसरा पलक पावडे बिछाए तैयार होता है देने के लिए, भले ही पहले कभी आपने उसे स्वादिष्ट खाने कि पार्टी से भगा दिया हो | कई बार तो आप न मांगे तो भी 'समर्थन' देते है . ये होता है ब्लेकमेल !
सिर्फ जंतर मंतर पर बैठने से क्या होता है | कितना परेशान होते है दुसरे नागरिक | अब वैसे ही राजनेतिक रैलीओं ओर जुलुस से कोई कम परेशानी है जो तुम भी अनशन पर बैठ जाओ ? फिर बोलने का अधिकार दिया है तो शुभ-शुभ बोलो | भारतीय संस्कृति का भी ख्याल नहीं करते | गाँधी जी के वारिस है ये भी भूल गए | बापू ने क्या कहा था ? बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो . पर कभी इतिहास पढ़ा हो तब न | और गाँधी के देश के हो तो कम से कम 'गाँधी' के खिलाफ तो मत बोलो |
तो भैय्या ब्लेकमेल करना ही हो तो माया बहन जी , जया बहन जी, लल्ला प्रसाद जी , गुस्सेल दीदी जी जैसे से सीखो. हाँ, सच कहता हूँ | कलकत्ता में बैठ कर दिल्ली का मंत्रालय चला दिया कि नहीं ?
और सिर्फ 'अन्ना' नाम होने से आप को ब्लेकमेल का अधिकार नहीं मिल जाता | एक वो अन्ना है जिनके पूरे परिवार को जेल में डाल दिया पर चूँ तक नहीं की | और आप है कि भ्रष्ट्राचार-भ्रष्ट्राचार किये जा रहे है | अनशन का दिन भी कौन सा चुना, आजादी पर्व के ठीक दूसरे दिन | और कहते है भ्रष्ट्राचार भारत छोड़ो | भूल गए हमारी संस्कृति? हम किसी को जाने को नहीं कहते, हम तो सभी आने वाले का स्वागत करते है | पासपोर्ट वीजा न भी हो तो क्या हुआ? बेचारा कितनी मुसीबतें उठा कर आया होगा, जाने का कैसे कह दे ?
और भ्रष्ट्राचार क्या ? जब बाबू , अफसर, मंत्री, संतरी या बेटा, साला, बेटी, जमाई, सभी शामिल हो तो उसे शिष्टाचार कहते है | व्याकरण पढ़ी नहीं कभी क्लास में ओर चले है सरकार को समझाने | तो भैय्या ये ब्लेकमेल का धंदा छोड़ो और कुछ शिष्टाचार सीखो. वरना तुम मजबूर करते हो सरकार को ओर आधी रात को परेशान होती है पुलिस | हाँ आखिर में सरकार को फिर से धन्यवाद कि उसने मेरा 'जनरल नॉलेज' बढाया वरना मै तो आन्दोलन को प्रजातंत्र का अधिकार ही समझता रहता |
-दिलीप लोकरे
36, सुदामानगर इंदौर 452009
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