शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

कविता - जिए बिना


चलते-चलते
यादों के गलियारे में
एक पल रुक कर
छुआ भर था
अहसास की
अँधेरी दीवारों को मैंने/
चीत्कार उठी जैसे वे
सारी की सारी
भावनाओ के चमगादड़
उड़ गए पंख फडफडा कर
सर के ऊपर से/
रिश्तो की घिनोनी
बदबू से
नाक जैसे सुन्न
हो गई मेरी/
बदहवास सा
बाहर कि ओर भागा मै
खुले आकाश कि तलाश में/
किन्तु
बदरंग हो चुका था वह भी
घटनाओ के चक्रवात से/
सचमुच
कुछ चीजे होती है
जिन्हें छुआ नहीं जाता
कुछ जिन्हें
नाम नहीं दे सकते आप/
कुछ ऐसा जिसे जी नहीं सकते
और कुछ ऐसा
जिसे जिए बिना
मर भी नहीं सकते/

दिलीप लोकरे
ई- ३६, सुदामा नगर,फूटी कोठी के पास,
इंदौर ४५२००९ [म.प्र.]

रविवार, 18 जुलाई 2010

समझदार बच्चा
कभी चाँद को रोटी समझने वाला बच्चा
अब समझदार हो गया है
वह जानता है रोटी, रोटी है
चाँद नहीं
वह यह भी जानता है
अच्छी तरह
की मेहनत करे बिना रोज
रात को चाँद दिख सकता है
रोटी नहीं
और शायद इसी लिए
रात को चाँद देखने के बदले
वह काम करता है
तभी पाता है
सुबह-सुबह रोटी,भरपेट
-- दिलीप लोकरे

रविवार, 4 जुलाई 2010

चिड़िया और आदमी

चिड़िया और आदमी
हाल ही में बनाये
बड़े बंगले से
माँ की ही तरह
चिड़िया को भी
बाहर निकाल दिया मैंने,
माँ
जिसने मुझे जीवन दिया
अपना दूध पिलाया
चलना सिखाया
हर मुश्किल में
साथ निभाया,
और चिड़िया
जिसने बिना थके
बिना हारे
मेहनत से
अपना नीड़
बनाना सिखाया
....क्या करू
चिड़िया नहीं
आदमी हू
मै.......!
-दिलीप लोकरे

शुक्रवार, 11 जून 2010

कविता


ज़माना बदल गया
पिछली बरसात में इन्द्रधनुष नहीं देखा मैंने
कोयल भी कूकी नहीं पूरे वसंत में
सावन की फुहारों को तरसे पेड़ो पर लगे झूले
कड़कती बिजली क्यों ग़ायब रही अनंत में ?
मेघ संदेसा ले जाने से डरते रहे प्रियतम का
बच्चे हाथों में लिए बैठे रहे कागज़ की नाव
नदियाँ ख़ाली ही रही अंतस तक अपने
बाढ़ से डूबे नहीं शहर से लगे गाँव
आषाढ़ तरसता रहा पहली बारिश के लिए
भादो ढूँढता रहा पेड़ो की छाव
भुट्टे सेंकने नहीं आया कोई ठेले पर
मोर भी नाचा नहीं मिट्टी के ढेले पर
होता नहीं क्यों ऐसा
सोचते है हम जैसा
हम तो है वैसे ही
शायद जमाना बदल गया है !
-दिलीप लोकरे

रविवार, 16 मई 2010

परिवर्तन कि चाह है । मौके कि तलाश है नजरे दूर क्षतिज तक देख रही है.............. कही है कुछ ?

शनिवार, 8 मई 2010

Mothers Day


कहाँ गई वो माँ ?
चूल्हे पर सिकी रोटी कि गंध में
आँगन बुहारने पर धूल कि धुन्द में
त्योहारों पर बनी रंगोली के रंग में
पहले-पहले दिन स्कूल जाति संग में
किसी गलती पर मुझे पीट कर खुद आंसू बहाती
कहाँ गई वो माँ ?

रात को डरने पर आँचल की छाँव में
गलती करने पर डांट के भाव में
गरमी कि छुट्टी में मामा के गाँव में
छुक-छुक गाड़ी कि भीड़-भाड़ में
पीतल के लोटे से पानी पिलाती
कहाँ गई वो माँ ?

गाँव के टीले पे
मंदिर के मेले में
कागज की फिरकनी मुझे दिलाती
कोने के ठेले पे
बरफ के गोले पे
रंगों की चाशनी ज्यादा डलाती
खुद न खा कर मुझे खिलाती
कहाँ गई वो माँ ?
. दिलीप लोकरे

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

अर्ज किया है

यूं तो फितरत नहीं कि मारे एक चींटी भी /
पर आया वक्त तो लड़ जायेंगे खुदा से भी तुम्हारे लिए/

हिंदी चर्चा

उसने तो लुटा दी सारी नेमते अपनी हमारे लिए/
और हम है कि लड़ते है एक मकां के लिए ।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

अर्ज किया है ......


उसने तो लुटा दी सारी नेमते अपनी हमारे लिए,

एक हम है कि झगड़ते है छोटे से मकां के लिए।

अर्ज किया है....


उसने तो लुटा दी सारी नेमते 'अपनी' हमारे लिए /
एक हम है जो झगड़ते है छोटे से मकां के लिए /




















कुछ चित्र मेरे मित्र श्रीराम जोग के। यह न सिर्फ एक अच्छे अभिनेता है ,बल्कि एक बहुत अच्छे निर्देशक भी है।आप कि प्रतिक्रिया मेरे लिए मूल्यवान होगी, प्रतीक्षा में ..........

चुराई तो थी रोशनी बहुत सूरज से तुम्हारे लिए /
तेरे चेहरे के नूर से पर महफिल में अँधेरा ना हुआ।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

उड़ा के लॆ जाती है सबा मुझे सूखे पत्ते की मानिन्द,

उड़ा के ले जाति है सबा मुझे सूखे पत्ते कि मानिंद /
और एक तुम हो, जो कहती हो कि पत्थर हम हैं .

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

मन की बातें मन समझाए,

मन की बातें मन समझाये
मन को लेकिन समझ न आये
समझ के खुद गर मन समझाये
शायद मन को समझ में आये

मन की बातें मन समझाए,

मन की बातें मन समझाये , मन को लेकिन समझ न आये
समझ के खुद गर मन समझाये, शायद मन को समझ में आये
0 दिलीप

बुधवार, 31 मार्च 2010

अपने अधिकार

सडक किसके लिए है और जंगल किसके लिए ?
रोज की आपाधापी भरी जिंदगी में हम अकसर यह उम्मीद करते है कि हमें सारी वह सुविधाए मिले जो मिलनी चाहिए , लेकिन उन सुविधाओ कि चाह में अपने कर्त्तव्य भूल जाते हैं । हमारी सुविधा यदि दूसरे कि असुविधा होती हो तो हमें अपने कर्तव्य का बोध भी होना ही चाहिए .

मंगलवार, 30 मार्च 2010

स्नेह


मध्य प्रदेश के सुन्दर शहर मांडू में लिया है इस चित्र को ।
ग्रामीण परिवेश के स्नेह को दर्शाता यह चित्र .

गजल- अभी तो रात चल रही है


हवा जो साथ चल रही है /तो समझो बात चल रही है /
जो कल तक थी फासले से /वो थामे हाथ चल रही है /
वहां डूबें हैं कुछ मंजर /वहीं भीगे हैं कुछ सपने
इन आँखों में गज़ब सूखा /वहां बरसात चल रही है /
मुझे अपने भी मिलते हैं /तो रखता फासले दरम्यां/
किसी का अब भरोसा क्या / अभी तो घात चल रही है /
भरी दोपहर में दिखते है / यहाँ साये अँधेरे के /
कभी फुरसत में आ जाना / अभी तो रात चल रही है/
तुम्हारे घर मै पंहुचा था /की जानु इस सच्चाई को /
है सचमुच इश्क मुझसे /या खुराफ़ातचल रही है /
o दिलीप लोकरे