शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

कविता - जिए बिना


चलते-चलते
यादों के गलियारे में
एक पल रुक कर
छुआ भर था
अहसास की
अँधेरी दीवारों को मैंने/
चीत्कार उठी जैसे वे
सारी की सारी
भावनाओ के चमगादड़
उड़ गए पंख फडफडा कर
सर के ऊपर से/
रिश्तो की घिनोनी
बदबू से
नाक जैसे सुन्न
हो गई मेरी/
बदहवास सा
बाहर कि ओर भागा मै
खुले आकाश कि तलाश में/
किन्तु
बदरंग हो चुका था वह भी
घटनाओ के चक्रवात से/
सचमुच
कुछ चीजे होती है
जिन्हें छुआ नहीं जाता
कुछ जिन्हें
नाम नहीं दे सकते आप/
कुछ ऐसा जिसे जी नहीं सकते
और कुछ ऐसा
जिसे जिए बिना
मर भी नहीं सकते/

दिलीप लोकरे
ई- ३६, सुदामा नगर,फूटी कोठी के पास,
इंदौर ४५२००९ [म.प्र.]