सोमवार, 25 मार्च 2013

रचनाकार दिलीप लोकरे की व्यंग्य रचना


चिता की लकड़ी और गठबंधन सरकार 
गठ बंधन सरकार में सहयोगी दलों को जमाने  और श्मशान में चिता की लकड़ी जमाने को देख कर आपको कुछ महसूस होता है ? भाई मुझे तो होता है । आप कभी श्मशान गए हो ? अरे हाँ... गए तो होंगे ही लेकिन आपने महसूस किया या नहीं, यह मै नहीं जानता । हाँ, आप को यह सलाह जरूर दे सकता हूँ की अगली बार जब भी जाएँ, अपने लिए ना सही, पर देश के लिए इस पर गौर जरूर करें । घटक दलों को अपनी जगह जमाये रखना किसी शमशान में चिता पर लकड़ियों को जमाने से भी कठिन काम है ।
आपने गौर किया या नहीं मुझे नहीं पता, किन्तु मृत देह घर से उठी नहीं की कुछ ख़ास लोग बड़े सक्रीय हो जाते है | जैसे सरकार बनती हुई देख कर होते है । अबीर गुलाल सबके माथे पर ऐसे लगाते है जैसे उनके घर  का ही कोई  मरा हो । "अरे वह थाली कटोरी ले ली ना ? और हाँ मटके दो रखना । नहीं तो वहां से दौड़ना पड़ेगा बाजार " ।  अब गठबंधन सरकार की थाली कौन और कटोरी कौन ये आप मुझसे मत पूछिए । मटके तो खैर आपको पता ही होंगे ।
खैर । श्मशान के बाहर अंतिम पड़ाव होता है । जैसे पुराने जमाने में पार्टी अधिवेशन में अध्यक्ष के सामने डेस्क रखते थे ना कुछ-कुछ वैसा ही । उस पर मृत देह को रखने की रस्म होती है । बस रायचंद यहीं से शुरू हो जाते है । "अरे सिर इधर नहीं, उधर करो"| ठीक भाई, कर लेते है | लेकिन मुर्दे को जरा सा घुमाया नहीं की सबसे बड़े सहयोगी पार्टी के नेता की तरह कोई बोल देता है  " अरे नहीं ऐसे नहीं ... घर से पैर पहले बाहर निकाले थे ना ? तो यहाँ सिर दक्षिण में रहेगा "। हाँ जनाब! 'दक्षिण' की तरफ सिर रखना हर मुर्दे और सरकार के लिए जरूरी है | लेकिन तभी यदि किसी क्षेत्रीय पार्टी के छुट भैय्ये कार्यकर्ता की तरह कोई बोल दे कि, "क्या करते हो भैय्या ? इतना भी नहीं पता ? अरे अंतिम पडाव पर पैर इसी दिशा में रहते हैं "। अब किस दिशा में ? ये कौन पूछे | सरकार बनाने और अन्तिम संस्कार के दौरान सहयोगियों से बहस नहीं की जाती | देह फिर घुमा दी जाती है । अच्छा इस सारे पचड़े में मृतक का घरवाला सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के लीडर की तरह चुपचाप वो सारे आदेश मानता चलता है जो ये रायचंद उसे देते है । भई कौन रिस्क ले । सरकार की  तरह ही समाज में बनी उसकी इज्जत गिर जाये । इस सारे पचड़े में मृतक बेचारा यदि ज़िंदा भी हो तो चक्कर खा कर गिर पड़े । जो भी हो जैसे-तैसे लोग मन मार कर ही सही एक मत हो कर देह को अन्दर ले चलते है । ठीक वैसे ही जैसे सरकार बनाने की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन जाते है । इतने में ही कोई उत्त्साहित रायचंद दो लोगो को लकड़ी के गोदाम की और दौड़ा देता है । हाँ ! देह चिता स्थल तक पंहुचे उससे पहले लकड़ी, कंडे, संटी वहां तक पंहुच जाना बड़ी शान समझा जाता है, जैसे ताजे- ताजे हारे हुए विपक्षी पहले ही राष्ट्रपति तक पंहुच जाये ।
लेकिन संसार की सबसे शांत हो सकने वाली जगह की शांति यही से भंग होती है । एक भाई जहाँ सामान देख कर ही बोल देता है  " अरे यार कंडे इतने से ही है ? बाद में कम पड़ेंगे "। वहीँ  कोई दूसरा, पार्टी पर्यवेक्षक की तरह आगे बढ़कर संटी देख कर नाक भोह सिकोड़ लेता है " बस इतनी ही ?" जैसे कह रहे  हों सिर्फ दो सीट जीत कर सरकार में में शामिल होने की सोच रहे हो बच्चू । तभी तीसरा आकर कॉमनवेल्थ गेम्स के निर्माण कार्य की तरह , लकड़ी में मीनमेख निकाल कर उसे गीली पतली और ना जाने क्या क्या संज्ञा देते हुए लकड़ी की टाल वाले की माँ बहन का रिश्ता जोड़ देता है । बिलकुल किसी बड़े नेता की तरह, जो देश में फैले उपरी भ्रष्टाचार को छोड़ देता है लेकिन छोटे चपरासी या क्लर्क की प्रगतीशील भ्रष्टाचार की नीति, उसकी आँख में खटकती है । लेकिन असली टंटा शुरू होता है लकड़ी जमाने से । जैसे सरकार बनाने भी होता है ना पोर्ट फोलियो बांटने के दौरान ? किसी एक एक यक्ति ने कुछ लकडिया जमाई भी नहीं होती की अपने क्षेत्र में हारे हुए खज्जू नेता सा कोई 'ताऊ' आगे बढ़कर तत्काल उन्हें हटा देता है । जैसे चुनाव के बाद कार्यकर्ताओं को हटाता है । "क्या कर रहे हो ? ये मोटी लकड़ी यहाँ नहीं रखते । इसे अभी अलग रखो "। जैसे प्रधान मंत्री से  कह रहा हो अरे इसे कहाँ रेल मंत्रालय दे रहे हो पड़े रहने दो अभी एक तरफ ।
फिर जब वह कोई लकड़ी जमा चुका होता है तो कोई तीसरा सरकार का 'कार्पोरेट सहयोगी' सा आकर उन्हें हटा देता है । "अरे ये बड़ा डूंड यहाँ रखो छाती पर " जैसे अपने किसी ख़ास को वित्त मंत्रालय दिल रहा हो | पूंजीवादियों की मित्र और खुले बाजार की हिमायती ये सरकारे गरीब आम आदमी की छाती पर कितने बड़े-बड़े डूंड रख रही है ये कौन नहीं जानता ? इस सब झमेले में कुछ लोग बाहर से समर्थन देने वाले नेताओं के अंदाज में यह सब घटना क्रम देखते रहते है । उन्हें अच्छी तरह पता होता है की हस्तक्षेप कब करना है । अब उस गरीब की चिंता किसे होती है जिसकी छाती पर ये मूंग दलते है ।
भानुमती के कुनबे की माफिक सरकार जैसी ही चिता भी , जैसे तैसे सज जाए तो तो अपनी ही पार्टी के किसी असंतुष्ट नेता की माफिक आकर कोई  सीधे घोषणा कर देता है " नहीं जलेगी ! हवा जाने की जगह ही नहीं छोड़ी नीचे से "| जैसे कह रहा हो- नहीं चलेगी सरकार । आगे अडजस्ट करने की गुंजाईश ही नहीं छोड़ी । खैर इन भाईसाहब को भी जैसे तैसे 'अडजस्ट ' कर लो तो अग्नि देते समय क्या होता है ध्यान दीजियेगा कभी । "अरे ऊपर से पकड़ो ,और जल्दी चलो....... हाथ जल जायेंगे " लो कल्लो बात ? मुर्दे का पूरा शरीर जल जाएगा चिता की अग्नि में, उसकी किसी को चिंता नहीं ? जैसे आम आदमी जल रहा है - महंगाई, गैस सिलेंडर कटौती, और भ्रष्टाचार की अग्नि में | उसकी चिंता भी किसी को नहीं ।
खैर भैय्या ! इन तमाम विवादों ,असहयोग ,असहमति , धमकी और नाराजगियों के बाद भी चिता जलती है और खूब जलती है जैसे हमारी मिलीजुली सरकारे चलती है और खूब चलती है । लेकिन अगली बार 'शमशान' जाओ तो इस बात पर ध्यान जरूर देना ।
-दिलीप लोकरे
diliplokreindore@gmail.com
E-36, सुदामा नगर, इंदौर-452009 म. प्र.
मो. 9425082194

रविवार, 10 मार्च 2013

रचनाकार वेब पत्रिका पर प्रकाशित कहानी ' जाम का पेड़ '
लिंक - http://www.rachanakar.org/2013/03/blog-post_2057.html