शुक्रवार, 11 जून 2010

कविता


ज़माना बदल गया
पिछली बरसात में इन्द्रधनुष नहीं देखा मैंने
कोयल भी कूकी नहीं पूरे वसंत में
सावन की फुहारों को तरसे पेड़ो पर लगे झूले
कड़कती बिजली क्यों ग़ायब रही अनंत में ?
मेघ संदेसा ले जाने से डरते रहे प्रियतम का
बच्चे हाथों में लिए बैठे रहे कागज़ की नाव
नदियाँ ख़ाली ही रही अंतस तक अपने
बाढ़ से डूबे नहीं शहर से लगे गाँव
आषाढ़ तरसता रहा पहली बारिश के लिए
भादो ढूँढता रहा पेड़ो की छाव
भुट्टे सेंकने नहीं आया कोई ठेले पर
मोर भी नाचा नहीं मिट्टी के ढेले पर
होता नहीं क्यों ऐसा
सोचते है हम जैसा
हम तो है वैसे ही
शायद जमाना बदल गया है !
-दिलीप लोकरे