रचनाकार: मातृ दिवस विशेष - दिलीप लोकरे की रचना : माँ
माँ
धुल -धुँआ दीवारें काली याद अभी कुछ बाकी है
चूल्हे पर फुंकनी का मीठा स्पर्श अभी कुछ बाकी है
गर्म लपट से झुलसा चेहरा तेज अभी कुछ बाकी है
रोटी से आती धुंए की गंध अभी कुछ बाकी है
कैसे भूल सकूंगा उसको जिसने मुझको जन्म दिया
खूब कमाया फिर भी उसका कर्ज़ अभी कुछ बाकी है
रात-रात भर जाग के जिसने मुझको ख़ूब सुलाया था
जाग-जाग कर अब सोचूँ अहसास अभी कुछ बाकी है
ख़ूद भूखे रहकर भी जिसने मुझको ख़ूब खिलाया था
हाथों के पोरों पर अब भी स्वाद वो थोड़ा बाकी है
आज हवा में उड़ लूं चाहे सड़कों पर कारों में चलूं
तेरी गोद में लेटूँ फिर से ख्वाइश ये कुछ बाकी है
मुश्किल कैसी भी जीवन में हो कैसी भी कठिनाई
तेरा आँचल होगा सर पर ये विश्वास भी बाकी है
कोशिश चाहे लाख करूँ पर भूल कभी ना पाउँगा
चहरे की झुर्रियों में कुछ इतिहास अभी भी बाकी है
संस्कारों ने तेरे मुझको लड़ना बहुत सिखाया है
कुछ तो छूट गया पीछे पर आगे भी कुछ बाकी है
-दिलीप लोकरे
E-36, सुदामानगर, इंदौर-452009,म . प्र .
माँ
धुल -धुँआ दीवारें काली याद अभी कुछ बाकी है
चूल्हे पर फुंकनी का मीठा स्पर्श अभी कुछ बाकी है
गर्म लपट से झुलसा चेहरा तेज अभी कुछ बाकी है
रोटी से आती धुंए की गंध अभी कुछ बाकी है
कैसे भूल सकूंगा उसको जिसने मुझको जन्म दिया
खूब कमाया फिर भी उसका कर्ज़ अभी कुछ बाकी है
रात-रात भर जाग के जिसने मुझको ख़ूब सुलाया था
जाग-जाग कर अब सोचूँ अहसास अभी कुछ बाकी है
ख़ूद भूखे रहकर भी जिसने मुझको ख़ूब खिलाया था
हाथों के पोरों पर अब भी स्वाद वो थोड़ा बाकी है
आज हवा में उड़ लूं चाहे सड़कों पर कारों में चलूं
तेरी गोद में लेटूँ फिर से ख्वाइश ये कुछ बाकी है
मुश्किल कैसी भी जीवन में हो कैसी भी कठिनाई
तेरा आँचल होगा सर पर ये विश्वास भी बाकी है
कोशिश चाहे लाख करूँ पर भूल कभी ना पाउँगा
चहरे की झुर्रियों में कुछ इतिहास अभी भी बाकी है
संस्कारों ने तेरे मुझको लड़ना बहुत सिखाया है
कुछ तो छूट गया पीछे पर आगे भी कुछ बाकी है
-दिलीप लोकरे
E-36, सुदामानगर, इंदौर-452009,म . प्र .